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भ॒द्रा ते॒ हस्ता॒ सृकृ॑तो॒त पा॒णी प्र॑य॒न्तारा॑ स्तुव॒ते राध॑ इन्द्र। का ते॒ निष॑त्तिः॒ किमु॒ नो म॑मत्सि॒ किं नोदु॑दु हर्षसे॒ दात॒वा उ॑ ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhadrā te hastā sukṛtota pāṇī prayantārā stuvate rādha indra | kā te niṣattiḥ kim u no mamatsi kiṁ nod-ud u harṣase dātavā u ||

पद पाठ

भ॒द्रा। ते॒। हस्ता॑। सुऽकृ॑ता। उ॒त। पा॒णी इति॑। प्र॒ऽय॒न्तारा॑। स्तु॒व॒ते। राधः॑। इ॒न्द्र॒। का। ते॒। निऽस॑त्तिः। किम्। ऊ॒म् इति॑। नो इति॑। म॒म॒त्सि॒। किम्। न। उत्ऽउ॑त्। ऊ॒म् इति॑। ह॒र्ष॒से॒। दात॒वै। ऊँ॒ इति॑ ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:21» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सब के लिये सुख देनेवाले ! जिन (ते) आपके (सुकृता) श्रेष्ठ धर्म्मयुक्त कर्म्म किया जाता जिनसे वे (हस्ता) हाथ (उत) और (प्रयन्तारा) देते हैं जिनसे वे (भद्रा) कल्याण कर्म करनेवाले (पाणी) हाथ (स्तुवते) सत्य बोलते हुए के लिये (राधः) धन देवें उन (ते) आपको (का) कौन (निषत्तिः) स्थित होते हैं जिससे ऐसी मर्य्यादा वा नीति है (उ) और आप (किम्) क्या (नः) हम लोगों को (ममत्सि) प्रसन्न करते हो और (दातवै) देने को (उ) भी (किम्) क्यों (न, उ) नहीं (उदुत्) उत्तम प्रकार (हर्षसे) आनन्दित होते हो ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जिससे आप हम लोगों को आनन्द देते हो, इससे आनन्दित निरन्तर होते हो और जिससे आप सुवर्ण हस्त में धारण किये हुए दानसहित हस्तयुक्त हुए योग्यों का सत्कार करते हो, इससे आपकी कल्याण करनेवाली नीति है ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यस्य ते सुकृता हस्ता उतापि प्रयन्तारा भद्रा पाणी स्तुवते राधो दद्यातां तस्य ते का निषत्तिरु त्वं किं नो ममत्सि दातवा उ किं न उ उदुद्धर्षसे ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भद्रा) कल्याणकर्म्मकरौ (ते) तव (हस्ता) हस्तौ (सुकृता) शोभनं धर्म्यं कर्म्म क्रियते याभ्यान्तौ (उत) अपि (पाणी) बाहू (प्रयन्तारा) प्रयच्छन्ति याभ्यान्तौ (स्तुवते) सत्यं वदते (राधः) धनम् (इन्द्र) सर्वेभ्यः सुखप्रद (का) (ते) तव (निषत्तिः) निषीदन्ति यया सा स्थितिर्नीतिर्वा (किम्) (उ) (नः) अस्मान् (ममत्सि) हर्षयसि (किम्) (न) निषेधे (उदुत्) उत्कृष्टे (उ) वितर्के (हर्षसे) आनन्दसि (दातवै) दातुम् (उ) ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यस्मात्त्वमस्मानानन्दयसि तस्मादानन्दितः सततञ्जायसे यतस्त्वं सुवर्णपाणिर्दानहस्तो योग्यान् सत्करोषि तस्मात्तव कल्याणकरी नीतिरस्ति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जेव्हा तू आम्हाला आनंद देतोस तेव्हा निरंतर तूही आनंदित होतोस. जेव्हा तू सुवर्ण धारण केलेल्या हस्ताने तेव्हा दान करून योग्य माणसांचा सत्कार करतोस, तेव्हा तुझी नीती कल्याणकारी असते. ॥ ९ ॥